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इंसानियत की पुकार |
हिन्दू, तो कहीं मुस्लमान, नहीं जीने देते ,
यहूद, तो कहीं नसारा, नहीं जीने देते ,
जाये तो आदमी,जाए किधर ,
ग़ुंचों को , बाग़बान नहीं खिलने देते।
सियासत ने मोहम्मद (sa) व मसीह (as) को नहीं छोड़ा ,
राम (Shri) को नहीं छोड़ा , मूसा (as) को नहीं छोड़ा,
शातिर रहा आदमी, हर ज़माने में ,
अना में डूबा फिरौन ने भगवन को नहीं छोड़ा।
मंदिर ओ मस्जिद , गिरजा बना लिए कितने ,
झूमर ग़लीचे जुगनुओं से, सजा लिए कितने ,
ईमान व हिदायत, दफ़ना के उसी फर्श में ,
इंसान और बस्तियाँ जला दिए कितने।
रख लेने से नाम राम ,
या फिर, इस्लाम अपना ,
कोई शरायत पूरी नहीं होती ,
जब तक न बसे मोहब्बत दिल में ,
कोई इबादत , पूरी नहीं होती।
जंग का म्यार, आज , बहुत निचे उतर आया ,
रहनुमा ही, कहीं क़त्ल तो कहीं धमाका कर आया,
बच्चे , बूढ़े , औरतें या हो जवान ,
ख़ौफ़ में जीता, हर इंसान नज़र आया।
मक़तूल की मय्यत में सारा शहर आया ,
हुक्मरान आये , हर बशर आया ,
हांथों में लिए, फूल और शमा,
सब की आँखों में, खून उभर आया ,
फिर बुझा दिए, शहर और बस्तियां, सारे
जब आसमान में उड़ता, उनका क़हर आया ,
मिली राहत और सुकून , तब जा के उनको ,
जब चीथड़े, बेगुनाहों के, हवाओं में लहर आया,
आतंकी भी ख़ूनी,
हुकूमतें भी ख़ूनी ,
किसी का फरेब ख़िलाफ़त ,
तो किसी का जमहूरियत
दोनों ने किया गुलिस्तां बरबाद ,
दोनों हैं, बराबर के, मुजरिम आज।
यहाँ ज़ाहिरी और है , बातिन और ,
चल रहा है अब, दज्जलियत का दौर।
खेल है, ताक़त और मुनाफों का ,
नशा है, कुफ्र और गुनाहों का।
कहीं शयातीन , तो
कहीं पैसों का है राज ,
बेगुनाहों की लाशों पे तिजारत ,
तो कहीं, सियासत हो रही आज ,
वह लोग तो ज़ालिम हैं,
तुम भी सितमगर हो फैज़,
खड़े खड़े देखते रहे ,
लुटती इन्सानियत की लाज।